Friday, February 20, 2009

फागुन.............

उत्तराखंड! यूँ तो सर्वोतम सुन्दरता से परिपूर्ण है, पर बसंत ऋतू में इसकी सुन्दरता में निखार आ जाता है। और उत्तराखंडी भी इस परदेश की सुन्दरता में सरीक होते हैं। ऋतुराज बसंत, जब यहाँ दस्तक देता है तो समां मनो रंगीन से भी रंगीन हो जाता है, चरों तरफ़ हरियाली, बर्फ की ठंडक कम होते हुए, बर्फ के कारण हुए पतझड़ वाले पर्दों में फ़िर से नई कोंपले आ जाती हैं और तरफ़ तरह के वनफूलों से सारी धारा अलंकृत हो जाती है।
बुरांस! उत्तराखंड का राज्य पुष्प, सरे जंगल को रक्त वर्ण से सुसज्जित करता है तो दूसरी तरफ़ फ्योंली के फूल पीत वर्ण से घाटियों को सजाते हैं।सरसों के पीत वर्ण से सजे खेत और, वनों में कई अन्य तरह के फूलों से सजी धारा को देखा जा सकता है इस ऋतुराज बसंत में।
और तो और फागुन का सौन्दर्य देखते ही बनता है, पहाड़ में बसंत पंचमी की धूम, लोग जौ को अपने घरों की चौखट पर लगते हैं, और यह दिन होता है हल लगाने का, क्योंकि ठण्ड के मौसम के बाद पहाडी महिलाएं खेतों में काम करने के लिए जाती हैं और बसंत पंचमी से यह सिलसिला शुरू होता है। ये शुभ मन जाता है पहाड़ में हल के लिए और फ़िर आती है, पूरे संगीत का सामन साथ लेकर होली के रंगों को संगीत के साथ सजाकर पहाड़ को रंगीन कर देते हैं।

चैत के महीने में औजी के गीत और फुलेर्यों के फूल, बड़ा ही मद्मोहक समां बंधती हैं। हर घर में कन्यायें सुबह सुबह ताजे फूलों को चौखट में डाल आती हैं, जिनकी खुशबू से पूरा घर दिन भर भरा भरा रहता है।
चैत के महीने में पहाड़ की बेटियाँ मैत या मायके आ जाती हैं और वह भी देखती हैं अपने घर के उन पेड़ों को फ़िर से नए कोंपलों से सजती हुई और धन्य होती हैं इस धारा के सृजन को देखकर।
सचमुच अद्भुद है वह धारा जिसे , कुदरत ने साक्षात् स्वर्ग का खिताब दिया है।

प्यारे साथियों! पिछले posts में अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया देने के लिए धन्यवाद.................

Thursday, February 12, 2009

राजुला और मालूशाही, Rajula and malushahi(love story)


आज वी-डे है, प्यार का अनमोल दिन, मेरे लिए आवश्यक है की इस विषय में भी कुछ लिखूं, चलिए एक महँ प्रेमगाथा के कुछ अंश में आपको बताता हूँ-

मेरे परदेश यानी उत्तराखंड में भी एक महान प्रेमगाथा प्रसिद्ध है, यह कहानी कोई हज़ार साल पुरानी है, कहानी तब की है जब कत्युरी राज का अन्तिम दौर चल रहा था। राजधानी कार्तिकेय पुर यानी बागेश्वर(कुमाऊ) से द्वारहाट यानि बैराठ आ चुकी थी। कत्युरी वंश का राजा मालूशाही के स्वप्न में जोहार के सुनपति शौका कन्या राजुला आती है, सुन्दरता से परिपूरण राजुला को देखते ही मालूशाही को उस कन्या से प्रेम हो जाता है। शौका लोगों का रहन सहन हिमालय के निचले हिस्सों की तुलना में भिन्न है। तो आपस में शादी ब्याह भी कम ही होते हैं,

मालूशाही की सात रानियाँ पहले से ही हैं, पर राजुला का अप्रतिम सौन्दर्य को स्वप्न में देखकर वह राजुला पर मोहित हो जाता है। वह राजुला को प्राप्त करने के लिए मल्ला जोहार के दुर्गम रस्ते पर दल बल के साथ जाता है। और कहते हैं जोडियाँ स्वर्ग से ही बनकर आती हैं, तो वह सही भी हो सकता है, क्योँ की कहते हैं की राजुला को भी मालूशाही स्वप्न में आता है, और वह भी उस से प्रेम करने लगती है, मन ही मन उसे अपना मान लेती है। भारत की हर प्रेम कहानी की तरह यहाँ पर भी राजुला के पिता उसका दीवानापन देखकर उसकी शादी हुन्देश यानी तिब्बत में एक व्यापारी से कर देते हैं। मालूशाही अपने लव-लश्कर के साथ जोगी के वेश में शौक्आन पहुँचता है,

मालू की यह यात्रा बहुत ही ज्यादा रोमांचकारी है क्यूंकि वह हिमाच्छादित रस्ते से जो की बहुत ही ज्यादा दुर्गम है, से यात्रा करता है।

मालू किसी तरह राजुला से मिलता है, उसे उसकी मन की बात पूछता है, तो वह भी अपने मन की बात बता देती है, तब वह राजुला के पिता से उसका हाथ मांगता है पर वह किसी भी कीमत पर मन कर देता है। अंत में मालूशाही को ज़हर खिला दिया जाता है................

सिदुवा और विदुवा नाम के दो योगी मृतपराय मालूशाही को बचा देते हैं, फ़िर वह राजुला के लिए युद्ध करता है, और जीतकर राजुला को अपनी पत्नी बनाकर बैराठ लाने में कामयाब हो जाता है।

यह कहानी शताब्दियों पुरानी है, पर पीड़ी दर पीड़ी यह कहानी आगे बड़ रही है, और सच ही कहा सच्चा प्यार कभी मरता नही है, हमेशा के लिए अमर हो जाता है।
यह कहानी कैसी लगी अवश्य अपनी प्रतिक्रिया लिखें.....................

Thursday, February 5, 2009

Sri Dev Suman, श्री देव सुमन



यह वीर है उस पुण्य भूमि का, जिसको मानसखंड , केदारखंड, उत्तराखंड कहा जाता है, स्वतंत्रता संग्रामी श्री देब सुमन किसी परिचय के मोहताज़ नही हैं, पर आज की नई पीड़ी को उनके बारे में, उनके अमर बलिदान के बारे में पता होना चाहिए, जिससे उन्हें फक्र हो इस बात पर की हमारी देवभूमि में सुमन सरीखे देशभक्त हुए हैं।
सुमन जी का जनम १५ मई १९१५ या १६ में टिहरी के पट्टी बमुंड, जौल्ली गाँव में हुआ था, जो ऋषिकेश से कुछ दूरी पर स्थित है। पिता का नाम श्री हरी दत्त बडोनी और माँ का नाम श्रीमती तारा देवी था, उनके पिता इलाके के प्रख्यात वैद्य थे। सुमन का असली नाम श्री दत्त बडोनी था। बाद में सुमन के नाम से विख्यात हुए। पर्ख्यात गाँधी- वादी नेता, हमेशा सत्याग्रह के सिधान्तों पर चले। पूरे भारत एकजुट होकर स्वतंत्रता की लडाई लड़ रहा था, उस लडाई को लोग दो तरह से लड़ रहे थे कुछ लोग क्रांतिकारी थे, तो कुछ अहिंसा के मानकों पर चलकर लडाई में बाद चढ़ कर भाग ले रहे थे, सुमन ने भी गाँधी के सिधान्तों पर आकर लडाई में बद्चाद कर भाग लिया। सुन्दरलाल बहुगुणा उनके साथी रहे हैं जो स्वयं भी गाँधी वादी हैं।


परजातंत्र का जमाना था, लोग बाहरी दुश्मन को भागने के लिए तैयार तो हो गए थे पर भीतरी जुल्मो से लड़ने की उस समय कम ही लोग सोच रहे थे और कुछ लोग थे जो पूरी तरह से आजादी के दीवाने थे, शायद वही थे सुमन जी, जो अंग्रेजों को भागने के लिए लड़ ही रहे थे साथ ही साथ उस भीतरी दुश्मन से भी लड़ रहे थे। भीतरी दुश्मन से मेरा तात्पर्य है उस समय के क्रूर राजा महाराजा। टिहरी भी एक रियासत थी, और बोलंदा बद्री (बोलते हुए बद्री नाथ जी) कहा जाता था राजा को। श्रीदेव सुमन ने मांगे राजा के सामने रखी, और राजा ने ३० दिसम्बर १९४३ को उन्हें गिरफ्तार कर दिया विद्रोही मान कर, जेल में सुमन को भरी बेडियाँ पहनाई गई, और उन्हें कंकड़ मिली दाल और रेत मिले हुए आते की रोटियां दी गई, सुमन मई १९४४ से आमरण अन्न शन शुरू कर दिया, जेल में उन्हें कई अमानवीय पीडाओं से गुजरना पड़ा, और आखिरकार जेल में २०९ दिनों की कैद में रहते हुए और ८४ दिनों तक अन्न शन पर रहते हुए २५ जुलाई १९४४ को उन्होंने दम तोड़ दिया। उनकी लाश का अन्तिम संस्कार न करके भागीरथी नदी में बहा दिया । मोहन सिंह दरोगा ने उनको कई पीडाएं कष्ट दिए उनकी हड़ताल को ख़त्म करने के लिए कई बार पर्यास किया पर सफल नही हुआ।


कहते हैं समय के आगे किसी की नही चलती वही भी हुआ, सुमन की कुछ मांगे राजा ने नही मानी, सुमन जो जनता के हक के लिए लड़ रहे थे राजा ने ध्यान नही दिया, आज न राजा का महल रहा, न राजा के पास सिंहासन। और वह टिहरी नगरी आज पानी में समां गई है। पर हमेशा याद रहेगा वह बलिदान और हमेशा याद आयेगा क्रूर राजा।
और अब मेरे शोध से लिए गए कुछ तथ्य:-
सुमन को कुछ लोग कहते हैं की उनकी लडाई केवल टिहरी रियासत के लिए थी, पर गवाह है सेंट्रल जेल आगरा से लिखी उनकी कुछ पंक्तियाँ की वह देश की आज़ादी के लिए भी लड़ रहे थे।
"आज जननी उगलती है अगनियुक्त अंगार माँ जी,
आज जननी कर रही है रक्त का श्रृंगार माँ जी।
इधर मेरे मुल्क में स्वधीनता संग्राम माँ जी,
उधर दुनिया में मची है मार काट महान माँ जी। "
उनकी शहादत को एक कवि ने श्रधान्जली दी है-
"हुवा अंत पचीस जुलाई सन चौवालीस में तैसा, निशा निमंत्रण की बेला में महाप्राण का कैसा?
मृत्यु सूचना गुप्त राखी शव कम्बल में लिपटाया, बोरी में रख बाँध उसको कन्धा बोझ बनाया।
घोर निशा में चुपके चुपके दो जन उसे उठाये, भिलंगना में फेंके छाप से छिपते वापस आए।"
वीर चंद्र सिंह गढ़वाली जी ने सुमन जी को याद करते हुए लिखा था-
"मै हिमालयन राज्य परिषद् के प्रतिनिधि के रूप में सेवाग्राम में गाँधी जी से १५ मिनट तक बात करते हुए उनसे मिला था, उनकी असामयिक मृत्यु टिहरी के लिए कलंक है। "
और सुंदर लाल बहुगुणा जी ने कहा-
"सुमन मरा नही मारा गया, मेने उसे घुलते-घुलते मरते देखा था। सुमन ने गीता पड़ने को मांगी थी पर नही दी गई, मरने पर सुमन का शव एक डंडे से लटकाया गया, और उसी तरह नदी में विसर्जित कर दिया गया।"
परिपूर्ण नन्द पेन्यूली ने कहा था-
"रजा को मालिक और स्वयं को गुलाम कहना उन्हें अच्छा नही लगा, जबकि राजा और प्रजा में पिता पुत्र का सम्बन्ध होता है।"
अपनी पत्नी विनय लक्ष्मी को उन्होंने कनखल से पत्र लिखा-
" माँ से कहना मुझे उनके लिए छोड़ दें जिनका कोई बेटा नही।"
और साथ में खर्चे की कमी के लिए उन्होंने लिखा-
"राह अब है ख़ुद बनानी, कष्ट, कठिनाइयों में धेर्य ही है बुद्धिमानी"

सुमनजी के बारे में पड़कर कैसा लगा अवश्य लिखें...
या फ़िर मुझे ई-मेल भेजें- click here..



Sunday, February 1, 2009

सुंदर लाल बहुगुणा, Sunder Lal Bahuguna


डॉ रूपचंद्र शास्त्री "मयंक" जी ने बहुगुणा जी के बारे में लिखा है-
"जितना सुन्दर नाम, काम भी उतने सुन्दर।परिवेशों के रखवाले को, नमन हमारा सुन्दर।देवभूमि की शान तुम्ही हो।इस पहाड़ के प्राण तुम्ही हो।"

उत्तराखंड एक पर्वतीय राज्य जहाँ पर हर दम नदियों की कल-कल झरनों की छल-छल, और पक्षियों की मधुर बोली, बुरांस, फ्योंली, पेंया और कई फूलों से सजी धरा, शायद इन्ही बातों ने बनाया होगा बहुगुणा जी को इस सुरम्य धरती का दीवाना, और उन्होंने पूरी उमर लगा दी इसके सुनहरे अस्तित्वा को बचाने में।

कहते हैं, कुछ लोग बहुत कुछ करना चाहते हैं पर कर नही पाते और कुछ लोग करके दिखाते हैं, वही बहुगुणा जी ने किया। एक साधारण से गाँव मरोड़ा, टिहरी में ९ जनवरी १९२७ को जन्मे बहुगुणा जी ने कई कुरीतियों का विरोध किया और फ़िर एक दिन विश्व प्रसिद्ध "चिपको आन्दोलन" १९७३ में दमख़म के साथ शुरू किया, बाद में कर्नाटक में "अप्पिको" आन्दोलन बना।

"टिहरी बाँध" के खिलाफ विरोध के लिए कई दिनों की बूख हड़ताल की। बड़ा बाँध वह भी भूकंप बाहुल्य धरती पर नाश का कारन बन सकता है, और इसी बात का विरोध किया बहुगुणा जी ने, "अगर हिमालय है तो यह देश कुछ नही है" और यह शायद सही कहा है बहुगुणा जी ने, हिमालय जिसे भारत का भाल, किरीट और कई आलंकारिक नामों से संबोधित किया है कवियों ने, और जिसकी प्राकृतिक छटा पर सारा संसार जान छिड़कता है, वाही अगर नही रहा तो भारत कुछ भी नही है।

पूर्ण रूप से गांधी वादी, हिंसा से बिल्कुल दूर, जब भी कुरीति का विरोध किया हमेशा अहिंसा से ही किया।

मेरी भेंट बहुगुणा जी से तब हुई थी जब में एक पत्रिका के लिए रिपोर्टिंग करता था। बिल्कुल ही पहाडी आदमी, हमेशा खद्दर पहन ने वाला। साधारण सा । कई लोग कहते हैं की बहुगुणा जी पर्वतीय गांधी हैं , परन्तु मे खारिज करता हूँ इस बात को क्योंकि बहुगुणा जी गांधी नही , बहुगुणा जी ही हैं। उन्हें किसी के नाम से जोड़ने की आवश्यकता ही नही है। हरियाली के लिए इतने उत्साहित रहते हैं, शब्दों में शायद ही कोई लेखक बयां कर पायेगा उनके अंतर्द्वंद को जो हर वक्त चलता है हिमालय के लिए।

२६ जनवरी को पदम् विभूषण से सम्मानित किया गया, और इस से पहले कई पुरुस्कारों से उनको सम्मानित किया गया है। बहुगुणा जी को भारत रत्न से सम्मानित किया जाना चाहिए। क्योंकि सच्चे अर्थों में वह भारत के सच्चे रतन हैं।





Thank all of You for your invaluable views.....