AD
Friday, February 20, 2009
फागुन.............
बुरांस! उत्तराखंड का राज्य पुष्प, सरे जंगल को रक्त वर्ण से सुसज्जित करता है तो दूसरी तरफ़ फ्योंली के फूल पीत वर्ण से घाटियों को सजाते हैं।सरसों के पीत वर्ण से सजे खेत और, वनों में कई अन्य तरह के फूलों से सजी धारा को देखा जा सकता है इस ऋतुराज बसंत में।
और तो और फागुन का सौन्दर्य देखते ही बनता है, पहाड़ में बसंत पंचमी की धूम, लोग जौ को अपने घरों की चौखट पर लगते हैं, और यह दिन होता है हल लगाने का, क्योंकि ठण्ड के मौसम के बाद पहाडी महिलाएं खेतों में काम करने के लिए जाती हैं और बसंत पंचमी से यह सिलसिला शुरू होता है। ये शुभ मन जाता है पहाड़ में हल के लिए और फ़िर आती है, पूरे संगीत का सामन साथ लेकर होली के रंगों को संगीत के साथ सजाकर पहाड़ को रंगीन कर देते हैं।
चैत के महीने में औजी के गीत और फुलेर्यों के फूल, बड़ा ही मद्मोहक समां बंधती हैं। हर घर में कन्यायें सुबह सुबह ताजे फूलों को चौखट में डाल आती हैं, जिनकी खुशबू से पूरा घर दिन भर भरा भरा रहता है।
चैत के महीने में पहाड़ की बेटियाँ मैत या मायके आ जाती हैं और वह भी देखती हैं अपने घर के उन पेड़ों को फ़िर से नए कोंपलों से सजती हुई और धन्य होती हैं इस धारा के सृजन को देखकर।
सचमुच अद्भुद है वह धारा जिसे , कुदरत ने साक्षात् स्वर्ग का खिताब दिया है।
Thursday, February 12, 2009
राजुला और मालूशाही, Rajula and malushahi(love story)
Thursday, February 5, 2009
Sri Dev Suman, श्री देव सुमन
यह वीर है उस पुण्य भूमि का, जिसको मानसखंड , केदारखंड, उत्तराखंड कहा जाता है, स्वतंत्रता संग्रामी श्री देब सुमन किसी परिचय के मोहताज़ नही हैं, पर आज की नई पीड़ी को उनके बारे में, उनके अमर बलिदान के बारे में पता होना चाहिए, जिससे उन्हें फक्र हो इस बात पर की हमारी देवभूमि में सुमन सरीखे देशभक्त हुए हैं।
सुमन जी का जनम १५ मई १९१५ या १६ में टिहरी के पट्टी बमुंड, जौल्ली गाँव में हुआ था, जो ऋषिकेश से कुछ दूरी पर स्थित है। पिता का नाम श्री हरी दत्त बडोनी और माँ का नाम श्रीमती तारा देवी था, उनके पिता इलाके के प्रख्यात वैद्य थे। सुमन का असली नाम श्री दत्त बडोनी था। बाद में सुमन के नाम से विख्यात हुए। पर्ख्यात गाँधी- वादी नेता, हमेशा सत्याग्रह के सिधान्तों पर चले। पूरे भारत एकजुट होकर स्वतंत्रता की लडाई लड़ रहा था, उस लडाई को लोग दो तरह से लड़ रहे थे कुछ लोग क्रांतिकारी थे, तो कुछ अहिंसा के मानकों पर चलकर लडाई में बाद चढ़ कर भाग ले रहे थे, सुमन ने भी गाँधी के सिधान्तों पर आकर लडाई में बद्चाद कर भाग लिया। सुन्दरलाल बहुगुणा उनके साथी रहे हैं जो स्वयं भी गाँधी वादी हैं।
परजातंत्र का जमाना था, लोग बाहरी दुश्मन को भागने के लिए तैयार तो हो गए थे पर भीतरी जुल्मो से लड़ने की उस समय कम ही लोग सोच रहे थे और कुछ लोग थे जो पूरी तरह से आजादी के दीवाने थे, शायद वही थे सुमन जी, जो अंग्रेजों को भागने के लिए लड़ ही रहे थे साथ ही साथ उस भीतरी दुश्मन से भी लड़ रहे थे। भीतरी दुश्मन से मेरा तात्पर्य है उस समय के क्रूर राजा महाराजा। टिहरी भी एक रियासत थी, और बोलंदा बद्री (बोलते हुए बद्री नाथ जी) कहा जाता था राजा को। श्रीदेव सुमन ने मांगे राजा के सामने रखी, और राजा ने ३० दिसम्बर १९४३ को उन्हें गिरफ्तार कर दिया विद्रोही मान कर, जेल में सुमन को भरी बेडियाँ पहनाई गई, और उन्हें कंकड़ मिली दाल और रेत मिले हुए आते की रोटियां दी गई, सुमन ३ मई १९४४ से आमरण अन्न शन शुरू कर दिया, जेल में उन्हें कई अमानवीय पीडाओं से गुजरना पड़ा, और आखिरकार जेल में २०९ दिनों की कैद में रहते हुए और ८४ दिनों तक अन्न शन पर रहते हुए २५ जुलाई १९४४ को उन्होंने दम तोड़ दिया। उनकी लाश का अन्तिम संस्कार न करके भागीरथी नदी में बहा दिया । मोहन सिंह दरोगा ने उनको कई पीडाएं कष्ट दिए उनकी हड़ताल को ख़त्म करने के लिए कई बार पर्यास किया पर सफल नही हुआ।
कहते हैं समय के आगे किसी की नही चलती वही भी हुआ, सुमन की कुछ मांगे राजा ने नही मानी, सुमन जो जनता के हक के लिए लड़ रहे थे राजा ने ध्यान नही दिया, आज न राजा का महल रहा, न राजा के पास सिंहासन। और वह टिहरी नगरी आज पानी में समां गई है। पर हमेशा याद रहेगा वह बलिदान और हमेशा याद आयेगा क्रूर राजा।
और अब मेरे शोध से लिए गए कुछ तथ्य:-
सुमन को कुछ लोग कहते हैं की उनकी लडाई केवल टिहरी रियासत के लिए थी, पर गवाह है सेंट्रल जेल आगरा से लिखी उनकी कुछ पंक्तियाँ की वह देश की आज़ादी के लिए भी लड़ रहे थे।
"आज जननी उगलती है अगनियुक्त अंगार माँ जी,
आज जननी कर रही है रक्त का श्रृंगार माँ जी।
इधर मेरे मुल्क में स्वधीनता संग्राम माँ जी,
उधर दुनिया में मची है मार काट महान माँ जी। "
उनकी शहादत को एक कवि ने श्रधान्जली दी है-
"हुवा अंत पचीस जुलाई सन चौवालीस में तैसा, निशा निमंत्रण की बेला में महाप्राण का कैसा?
मृत्यु सूचना गुप्त राखी शव कम्बल में लिपटाया, बोरी में रख बाँध उसको कन्धा बोझ बनाया।
घोर निशा में चुपके चुपके दो जन उसे उठाये, भिलंगना में फेंके छाप से छिपते वापस आए।"
वीर चंद्र सिंह गढ़वाली जी ने सुमन जी को याद करते हुए लिखा था-
"मै हिमालयन राज्य परिषद् के प्रतिनिधि के रूप में सेवाग्राम में गाँधी जी से १५ मिनट तक बात करते हुए उनसे मिला था, उनकी असामयिक मृत्यु टिहरी के लिए कलंक है। "
और सुंदर लाल बहुगुणा जी ने कहा-
"सुमन मरा नही मारा गया, मेने उसे घुलते-घुलते मरते देखा था। सुमन ने गीता पड़ने को मांगी थी पर नही दी गई, मरने पर सुमन का शव एक डंडे से लटकाया गया, और उसी तरह नदी में विसर्जित कर दिया गया।"
परिपूर्ण नन्द पेन्यूली ने कहा था-
"रजा को मालिक और स्वयं को गुलाम कहना उन्हें अच्छा नही लगा, जबकि राजा और प्रजा में पिता पुत्र का सम्बन्ध होता है।"
अपनी पत्नी विनय लक्ष्मी को उन्होंने कनखल से पत्र लिखा-
" माँ से कहना मुझे उनके लिए छोड़ दें जिनका कोई बेटा नही।"
और साथ में खर्चे की कमी के लिए उन्होंने लिखा-
"राह अब है ख़ुद बनानी, कष्ट, कठिनाइयों में धेर्य ही है बुद्धिमानी"
या फ़िर मुझे ई-मेल भेजें- click here..
Sunday, February 1, 2009
सुंदर लाल बहुगुणा, Sunder Lal Bahuguna
डॉ रूपचंद्र शास्त्री "मयंक" जी ने बहुगुणा जी के बारे में लिखा है-
"जितना सुन्दर नाम, काम भी उतने सुन्दर।परिवेशों के रखवाले को, नमन हमारा सुन्दर।देवभूमि की शान तुम्ही हो।इस पहाड़ के प्राण तुम्ही हो।"
उत्तराखंड एक पर्वतीय राज्य जहाँ पर हर दम नदियों की कल-कल झरनों की छल-छल, और पक्षियों की मधुर बोली, बुरांस, फ्योंली, पेंया और कई फूलों से सजी धरा, शायद इन्ही बातों ने बनाया होगा बहुगुणा जी को इस सुरम्य धरती का दीवाना, और उन्होंने पूरी उमर लगा दी इसके सुनहरे अस्तित्वा को बचाने में।
कहते हैं, कुछ लोग बहुत कुछ करना चाहते हैं पर कर नही पाते और कुछ लोग करके दिखाते हैं, वही बहुगुणा जी ने किया। एक साधारण से गाँव मरोड़ा, टिहरी में ९ जनवरी १९२७ को जन्मे बहुगुणा जी ने कई कुरीतियों का विरोध किया और फ़िर एक दिन विश्व प्रसिद्ध "चिपको आन्दोलन" १९७३ में दमख़म के साथ शुरू किया, बाद में कर्नाटक में "अप्पिको" आन्दोलन बना।
"टिहरी बाँध" के खिलाफ विरोध के लिए कई दिनों की बूख हड़ताल की। बड़ा बाँध वह भी भूकंप बाहुल्य धरती पर नाश का कारन बन सकता है, और इसी बात का विरोध किया बहुगुणा जी ने, "अगर हिमालय है तो यह देश कुछ नही है" और यह शायद सही कहा है बहुगुणा जी ने, हिमालय जिसे भारत का भाल, किरीट और कई आलंकारिक नामों से संबोधित किया है कवियों ने, और जिसकी प्राकृतिक छटा पर सारा संसार जान छिड़कता है, वाही अगर नही रहा तो भारत कुछ भी नही है।
पूर्ण रूप से गांधी वादी, हिंसा से बिल्कुल दूर, जब भी कुरीति का विरोध किया हमेशा अहिंसा से ही किया।
मेरी भेंट बहुगुणा जी से तब हुई थी जब में एक पत्रिका के लिए रिपोर्टिंग करता था। बिल्कुल ही पहाडी आदमी, हमेशा खद्दर पहन ने वाला। साधारण सा । कई लोग कहते हैं की बहुगुणा जी पर्वतीय गांधी हैं , परन्तु मे खारिज करता हूँ इस बात को क्योंकि बहुगुणा जी गांधी नही , बहुगुणा जी ही हैं। उन्हें किसी के नाम से जोड़ने की आवश्यकता ही नही है। हरियाली के लिए इतने उत्साहित रहते हैं, शब्दों में शायद ही कोई लेखक बयां कर पायेगा उनके अंतर्द्वंद को जो हर वक्त चलता है हिमालय के लिए।
२६ जनवरी को पदम् विभूषण से सम्मानित किया गया, और इस से पहले कई पुरुस्कारों से उनको सम्मानित किया गया है। बहुगुणा जी को भारत रत्न से सम्मानित किया जाना चाहिए। क्योंकि सच्चे अर्थों में वह भारत के सच्चे रतन हैं।
Sunday, January 18, 2009
उत्तराखंडी बचपन...
एक तरफ़ अगर प्रकृति ने कठोर मुसीबतों को दिया है तो दूसरी तरफ़ उन मुसीबतों को हल करने का उत्कृष्ट दिमाग भी दिया है, इस बात का उदाहरण है एक १०-१२ साल का बालक जंगल में गाय चुगने जाता है और खेल खेल में प्याज से "घराट" का एक मॉडल तैयार कर देता है, या फ़िर एक पेड़ को काटकर उसके बीच में छेड़ करके उसे एक पेड़ के बने खंभे में टांग देता है , और फ़िर दोनों और से दो बच्चे बैठकर आधुनिक पार्कों में घूमने जैसा आनंद लेते हैं।
यहाँ पर बालिकाओं का बचपन भी अद्बुद ही है, लड़कियां बचपन में खेल कूद के साथ साथ घरेलु कम-काज में हाथ बंटाना सीख जाती हैं। घास काट कर लाना तो आम बात है ही, कुछ बालिकाएं तो खाना तक बनने में भी मदद करती हैं।[click here...]
Tuesday, January 13, 2009
तेरी याद साथ है....!
उत्तराखंड में कहा जाता है की कोई भी जवान यहाँ अपना पसीना नही बहता, बल्कि पहाडों से दूर रहकर शहरों में वह पसीने को बोता है। चाहे इसे नियति कहें या भाग्य का खेल लिकिन ये सत्य है। वह मजबूर है अपने सुरम्य पहाडों को कई किलोमीटर पीछे छोड़कर शहरों में रहने के लिए। उन्ही शहरों में जहाँ जीवन बड़ा ही अजीब है। किसी को किसी की जरा भी परवाह नही है यहाँ पर, सब को अपनी जिंदगी के साथ चलते हुए देखा है, अनायास ही फ़िल्म हम दोनों की लाइन याद आती हैं - “मै ज़िन्दगी का साथ निभाता चला गया, हर फिक्र को धुवें मे उडाता चला गया“। जाने कहाँ जाते रहते हैं सारे लोग रात मे, दिन मे, सुबह को, शाम को। बस भीड़ है इन शहरों मे, जाने इतने लोग कहाँ से आते हैं और कहाँ जाते हैं।
उत्तराखंड के एक छोटे गाँव से थोड़ा पड़ लिखकर एक जवान ने करियर बनाने की सोची दिल्ली मे आकर,
दिल्ली एक शहर हमारे देश की राजधानी, उसने देखा सड़कें भरी हैं, बस, ट्रक , ऑटो, की आवाजें , बड़ा ही अजीब लगा उसे , कुछदिन उसे पहाड़ की याद सताती रही मगर बाद मे घुल-मिल गया वह यहाँ के वातावरण मे, और उसकी भी ज़िन्दगी हो गई व्यस्त, नौकरी मिल गई, और ज़िन्दगी रह गई खाना, ऑफिस जन, घर आना, सो जाना
आज रात को १० बजे मा का फ़ोन आया गाँव से-
मा- बेटा कैसा है तू दिल्ली मे।
बेटा- ठीक हूँ मा, जल्दी ही घर आऊंगा।
मा- बेटा घास काटने का वक्त आ गया, कोई घास लगाने वाला नही है घर आ जा कुछ दिनों के लिए छुटी लेकर।
बेटा- मा कल बात करूँगा सुबह अभी ऑफिस के लिए देर हो रहा हूँ।
मा- बेटा कैसा ऑफिस है जहाँ रात मे काम होता है?
बेटा- मा ये दिल्ली है यहाँ दिन मे, रात मे , सुबह मे , शाम मे हर वक्त काम होता है, यह कोई स्कूल नही है की मास्टर साब नही गए तो हाजिरी लग जायेगी। ये प्राइवेट नौकरी है जहाँ न जाओ तो पैसा कटता है , और अगर जाओ भी तो फ़िर भी कट सकता है।
मा- बेटा रात को काम पर जाता है तो सोता कब है?
बेटा- मा दिन मे सोता हूँ, सारे दिन सोता हूँ, रात को ऑफिस जाता हूँ। अच्छा अभी जा रहा हूँ कल फ़ोन करूंगा ८ बजे शाम को।
मा- ठीक है बेटा अब तेरे लिए वहां जाकर ८ बजे रात शाम हो गई है।
यही है ज़िन्दगी यहाँ पर जो दिन रात का फर्क भी नही जानती है। यहाँ पर सारे लोग पैसा बनाना चाहते हैं, नोट छपने की मशीन बनना चाहते हैं, और बन भी जाते हैं।
इसी याद मे बीच-बीच मे वह जाता रहा घर मे और फ़िर शाद्दी भी हो गई, बाल बचे हुए, वह बूडा हुआ, फ़िर अब उसका जवान बेटा आया है इसी दिल्ली मे, उसकी भी वही ज़िन्दगी है जो कभी उसकी । नियति का या फ़िर भाग्य का जाने किसका नियम मने इसे…………………….
पहाड़ की दहाड़...
सुनसान रात आज कुछ ज्यादा ही खामोश थी, हिमालय की गोद में बसे उत्तराखंड राज्य जो तब उत्तर परदेश में था, नीद की सुनहरी गोद में पसरा हुआ था, वह अक्टूबर के महीने की बात है, ठण्ड का प्रकोप कुछ ज्यादा ही था। उत्तरकाशी जिल्ले के एक गाँव में लोग किसी भी समय आने वाली प्रलय से बेखबर सुनहरे सपनों के साथ सो रहे थे, रात आधी से भी ज्यादा समाप्त हो गई थी और सबको आने वाली नयी भोर का इंतज़ार था, लोगों के पालतू जानवर, जंगली पशु पक्षी सब बेखौफ सो कर भोर का इंतज़ार कर रहे थे, एकाएक खूंटे पर बंधे हुए जानवरों के गले की घंटियाँ बजने लगी जिसका मतलब था की जानवर खौफजदा हो गए थे, कुत्ते भोंकने लगे, और पक्षी चहचहाने लगे, जब तक कोई कुछ समझ पता, धरती के अन्दर हो रही उथल पुथल साफ़ कानो में आने लगी, स्वप्नों में खोये लोग उस उथल पुथल को सुनकर जाग गए और बहार आकर देखने को तत्पर हुए ही थे की………।धरती हिलने लगी!
छार दीवारों के अन्दर पसरे लोग कुछ समझ पाते की मकान भरभरा कर गिरने लगे, और लोग अन्दर ही कैद होने शुरू हो गए थे, केवल कुछ ही पलों में सब कुछ बदल रहा था, जानवर खूंटे पर रम्भा रहे थे, जानवरों की गौशाला, चिडियों के घोंसले, हर प्राणी का अस्तित्वा मिटने को तत्पर थी धरती, वही धरती जिसने अतुल्य, अनमोल प्यार दिया था इन धरतीवासियों को, वही धरती जिसकी गोद में ये लोग इस सृष्टि में आए थे, वही धरती जो इन लोगों की सभी इच्छाएं, आकंक्षाये पूर्ण कर रही थी, और करने का संकल्प लिया है इस धरा ने, जाने आज क्योँ क्रोधित हो गई थी, साक्षात् रणचंडी बन गई थी, मनो सारी सृष्टि का संहार करने को तत्पर हो। धरती हिलती गई ………कुछ देर बाद सारा वातावरण शांत हो गया, पूरी तरह से शांत शायद धारा मा कुछ नरम हो रही थी, सुबह होने में कुछ ही वक्त बाकी रहा था। चारों ओर का माहौल बदल गया था, जहाँ खुशियों के साथ दिन की शुरुआत सूर्य निकलने के बाद होती वहां बिलाप कर के सूर्य के निकलने का इंतज़ार हो रहा था। कई लोग खँडहर हुए घरों में दम तोड़ रहे थे कई लोगों का साथ उनकी साँसे छोड़ चुकी थीं, परदम तोड़ रहे लोगों की मदद करना भी मुश्किल था क्योँ की न कोई उजाला था, न कोई इस हिम्मत में था की किसी की मदद कर सके, हर घर में लाश दबी थी, हर घर में यदि
कोई रोने वाला बचा था तो रो रहा था वरना मदद मांगने के लिए कोई भी नही दिख रहा था।
आख़िर उस भयानक रात के बाद एक नई सुबह, जो दुखों का कहर भी साथ लेकर आई , उस गाँव का मंजर यह था की चरों तरफ़ करुणा, बिलाप, क्रंदन हो रहा था, मकान ध्वस्त हो गए थे, जानवरों ने खूंटे पर ही दबकर दम तोड़ दिया था, ओ मदद के लिए रम्भा भी न सके, इंसानों की लाशे जो दबी हुई थी निकली जाने लगी, किसी का बेटा, किसी का भाई, किसी की बहन तो किसी की मा की कब्र उनके मन्दिर स्वरूप घर में बन गई थी, तो किसी का पूरा का पूरा परिवार ही उस कब्र में दफ़न हो गया था। जंगलों में पेड़ टूट कर बिखर गए थे, पक्षियों के घोंसले टूटकर नीचे बिखर चुके थे, कुछ पक्षी क्रंदन करते हुए चहचहा रहे थे, कौआ अपने घोसलों के बच्चों की मौत के कारण चिल्ला रहे थे। इंसान ही नही मनो पूरी प्रकृति विलाप कर रही थे, दहाड़े मार मार कर रो रही थी, ईश्वर को कोष रही थी।
और लोगों की मदद करने लगे, सूने पड़े शमशान घाटों में जन सेलाब दिख रहा था, पूरे इलाके में शमशान की घाटी में धुवें का गुबार दिख रहा था, कई कई लाशे एक साथ जल रही थी, पिचकी हुई लाशे, दबी हुई लाशे, कतरा-कतरा हुई लाशे। खुदाई का काम शुरू हुआ, लाशे निकाली जाने लगी
जो पहले दिन नही निकाली जा सकी, जानवरों की लाशें घसीट कर फेंकी जाने लगी और फ़िर अगली रात सबके लिए क़यामत की रात, कल तक जो साथ खा पीकर सोये थे आज उनके साथ नही थे, काल तक जिन्होंने बैठकर हुक्का पिया था आज साथ नही थे, कल तक जो साथ में रहकर घूमकर आए थे ओ आज जा चुके थे कभी न मिलने के लिए, जो फौजी साल में दो महीने की छूती लिए घर आया था वह फ़िर वापस न जा सका, जो लाडली अपने पीहर आई थी वह वापस न जा सकी।
ख़बर मिलते ही बचाव दल आए, एन जी ओ आए, सरकार ने मदद के लिए स्पेशल पैकेज की घोषणा की, ख़बर मिली की १००० के करीब लोग मरे गए, और कई घायल हो गए, कई हमेशा के लिए जीते जी मर गए कई अपंग हो कर रह गए। लोगों ने कहा ६.६ रेक्टर का भूकंप था।
यह एक रात का कहर था जो पहाड़ वासियों के दिलों पर कई जख्म लगा गया, कुछ ही वक्त के लिए आया और फ़िर चला गया। सबसे ज्यादा नुक्सान उत्तरकाशी जिल्ले में ही हुआ, सबसे ज्यादा मौतें वहीँ हुयी थी। लोगों को तम्बू मुहेया कराये गए क्योंकि घर बार टूट चुके थे, खाने को राशन दी गई, ओड़ने को कम्बल दिए गए, काफी जन मन और धन तीनो की हानि हुयी, साल बीतते रहे और दुनिया बदलती रही पर नासूर बन गए वे जखम जो उस रात ने दिल को दिए थे, कभी भी एक कसक एक टीस दिल में जगा देते हैं।
मलेथा की गूल
एक सिंह माधो सिंह, और सिंह काइ का। “
उत्तराखंड एक तरफ़ अपनी खूबसूरती के नाम से परसिद्ध है, तो दूसरी तरफ़ यहाँ के वीर पुरुषों से भी परसिद्ध है, यहाँ के इन्ही वीर पुरुषों में से एक वीर माधो सिंह भंडारी परसिद्ध हैं, श्रीनगर गढ़वाल से लगभग ४ किलोमीटर की दूरी पर तथा देवप्रयाग से लगभग ३० किलोमीटर की दूरी पर स्थित है मलेथा गाँव, अलकनंदा नदी के दहने तट पर बसा यह गाँव अपनी सुरम्यता, सौन्दर्यता से परिपूर्ण है। मलेथा गाँव अलकनंदा के तट पर होने के कारन मैदानी भाग की तरह लगता है क्यूंकि यहाँ पर समतल भूमि है।
इसी मलेथा गाँव में सोलहवीं- सत्रहवीं शताब्दी में कालो भंडारी के यहाँ एक पुत्र का जन्म हुआ, नाम रखा गया माधो सिंह भंडारी, तमाम बच्चों की तरह माधो का बचपन भी खेलने में खेतों में घूमने में बीता, जवान हुआ तो उसने अलकनंदा नदी के तट पर बसे सूखे मलेथा को देखा, जो पानी के सामने होते हुए भी सूखा था, वहां पर पड़ी खेतों की तरह झंगोरा और कोदा की ही पैदावार होती थी। जवान होकर माधो सिंह सेना में भरती हो गया, मलेथा तब गढ़वाल के रजा की राजधानी से बिल्कुल नज्दीग था तो माधो सिंह ने श्रीनगर गढ़वाल में राज महल में सैनिक बन गया। कुछ लोग अपनी तकदीर को अपने हाथों से लिखते हैं और कुछ लोग अपने हाथों से अपने भाग्य को लिखते हैं यही माधो ने किया, वीर सूत माधो की वीरता से रजा ने खुश होकर उसे सेनापति (जनरल) बनाकर तिब्बत भेज दिया।
तिब्बत में माधो ने अपना परचम लहराया और, गढ़वाल राज्य को चारो और फैलाया। कई दिनों बाद माधों घर वापस आया, और अपनी पत्नी से खाना लेन को कहा, देखता है की उसकी पत्नी नही आई, गुस्से में आकर चिलाकर उसने पत्नी को आवाज़ दी तो वह भी गुस्से में बिलबिलाकर बोल पड़ी, की आपको चावल, सब्जी या फल क्या चाहिए।
भारतीय इतिहास में कई कहानियाँ आती हैं जब किसी ने पति को सही राह दिखाई और ओ कुछ एसा कर बेठे जो उनसे उम्मीद नही की जा सकती थी, यही माधो ने भी किया, मलेथा गाँव की दहनी तरफ़ चंद्रभागा धारा (गधेरा) बहता है, माधो ने उस धारा का पानी मलेथा के खेतों(अब स्यारों) में लेन की युक्ति सोची, एक पहाड़ बीच की रुकावट बन रहा था तो माधो ने लगभग ९० मीटर lambi व ५ फीट चौडी सुरंग बनाकर पानी की एक गूल बना दी जो लगभग ३ किलोमीटर है।
गूल का निर्माण पूरा होने के बाद पानी मलेथा के खेतों में खोला गया, पर पानी नही आया, तब कुछ लोगों ने कहा की यह गूल बलि मांग रही है, माधो का एकलौता जवान बेटा उसकी नजर में आया और उसने गूल के मुहाने पर उसकी बलि दे दी……आज से पांच सौ साल पहले शिक्षा एवं तकनीकी ज्ञान का अभाव था। ऐसे समय में माधोसिंह भंडारी ने अपनी उत्कृष्ट तकनीकी के साथ इस सुरंग का निर्माण कर इतिहास में त्याग, तपस्या और बलिदान की सच्ची मिसाल कायम की।……धन्य है वह मलेथा की धारा जहाँ माधो सिंह जैसे वीरों का जन्म हुआ और धन्य है वह मलेथा के खेत जिनमे आज सरसों के पीले फूलों से है बहार रहती है, जहाँ आज बासमती चावल उगता है।
Monday, January 5, 2009
हथकरघा एवं हस्तशिल्प उद्योग को बढावा मिलना चाहिए.
उत्तराखंड में हथकरघा व हस्तशिल्प उद्योग के लिए कच्चा माल पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध मिलता है। अगर जरूरत है तो बस इस उद्योग के लिए एक मार्केट बनने की, पहले नेशनल लेबल का बाज़ार बना दिया जायऔर फ़िर इन उत्पादों को इंटरनेशनल लेबल पर बेचा जाय तो स्थानीय लोगों को रोज़गार के साथ साथ राज्य का रेवन्यू भी बढेगा।
हाथ से बने ऊनी स्वेटर, मफलर, टोपी या दस्ताने या फ़िर कंबल, शॉल, स्टॉल, चादरें व अन्य घरेलू सामान आदि सामन उत्तराखंड में आसानी से बुनकर बना देते हैं , इसके साथ ही काशीपुर, मंगलौर व उधमसिंहनगर की मशहूर सूती, रेशमी व ऊनी चादरें, कंबल, दरियां, गलीचे, पर्दे, वॉल हैंगिंग व अन्य सजावटी सामान का उत्पादन बहुत ही कम मात्र में होता है, यहां ऊंचाई वाले स्थानों पर पाई जाने वाली ऑस्ट्रेलियन भेड़ की ऊन से भी कई उत्पाद बनाये जा सकते हैं जो की अभी बहुत ही कम मात्र में प्रयोग की जाती है।